मैं भी चला वृद्धावस्था की ओर, समय की छाया संग लिए, अनुभवों की गठरी भारी, पर मन अब भी उमंग लिए...

मैं भी चला वृद्धावस्था की ओर, समय की छाया संग लिए, अनुभवों की गठरी भारी, पर मन अब भी उमंग लिए...

50-55 वर्ष पार करने के बाद जीवन की गति भले ही धीमी हो गई है, लेकिन इसका आनंद बढ़ गया है। अनुभवों की संपत्ति, रिश्तों की गहराई, स्वास्थ्य की जागरूकता और समाज के प्रति योगदान की भावना इसे और भी खूबसूरत बना रही है। यह उम्र स्वयं को नए सिरे से खोजने और जीवन के वास्तविक अर्थ को समझने के लिये काफी है।

हमारे सोचने का तरीका और व्यक्तित्व समय के साथ बदल गया है, और इसका मुख्य कारण जीवन के अनुभव, समाजिक परिवेश, और व्यक्तिगत जिम्मेदारियाँ हैं। उम्र के अलग-अलग पड़ावों पर इंसान की मानसिकता अलग होती है, जो उसकी प्राथमिकताओं और जीवन के प्रति दृष्टिकोण को प्रभावित करती है।

बाल अवस्था...
बचपन में व्यक्ति का दिमाग नई चीजों को सीखने और समझने में लगा रहता है। इस समय उसके सोचने का तरीका जिज्ञासा, कल्पनाशीलता और मासूमियत से भरा होता है। किशोरावस्था में आत्म-अन्वेषण का दौर शुरू होता है, जहाँ व्यक्ति अपने अस्तित्व, मूल्यों और स्वतंत्रता के बारे में सोचने लगता है। इस दौरान विद्रोही प्रवृत्ति और प्रयोग करने की चाह बढ़ जाती है।

युवा अवस्था...
यह दौर उत्साह और महत्वाकांक्षा से भरा होता है। युवा अपने करियर, रिश्तों और समाज में अपनी पहचान बनाने की कोशिश करता है। यह समय अक्सर संघर्षों और असफलताओं का होता है, जो व्यक्ति की सोच को परिपक्व बनाते हैं। इस उम्र में आदर्शवादिता अधिक होती है, लेकिन धीरे-धीरे व्यावहारिकता भी बढ़ने लगती है।

प्रौढ़ावस्था...
30-40 की उम्र तक पहुँचते-पहुँचते व्यक्ति का सोचने का तरीका काफी बदल जाता है। अब वह भावनाओं की बजाय तर्क और अनुभव के आधार पर निर्णय लेने लगता है। पारिवारिक और सामाजिक जिम्मेदारियाँ बढ़ने से वह अधिक संतुलित और व्यावहारिक हो जाता है। इस उम्र में व्यक्ति अपने करियर और निजी जीवन में स्थिरता चाहता है।

बुजुर्ग अवस्था...
50-60 की उम्र के बाद व्यक्ति अपने जीवन के अनुभवों से सीख चुका होता है। वह अधिक धैर्यवान, समझदार और संतुलित दृष्टिकोण रखता है। अब वह भौतिक सुख-सुविधाओं की बजाय मानसिक शांति और आत्मसंतोष को अधिक महत्व देने लगता है। जीवन के प्रति एक गहरी समझ और स्वीकार्यता आ जाती है।

और अंत में...
उम्र के साथ व्यक्ति की सोच और व्यक्तित्व में बदलाव आना स्वाभाविक है। हर उम्र में नई परिस्थितियाँ और अनुभव उसे नए नजरिए से सोचने के लिए प्रेरित करते हैं। बचपन की मासूमियत से लेकर बुजर्गावस्था की परिपक्वता तक, व्यक्ति का व्यक्तित्व धीरे-धीरे विकसित होता रहता है। यही जीवन की सबसे सुंदर और स्वाभाविक प्रक्रिया है।

डॉ मनीष वैद्य 
सचिव 
वृद्ध सेवा आश्रम, रांची

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