बढ़ती संवेदनहीनता: आधुनिक समाज की चुप्पी क्यों?
एक समय था जब किसी के घर दुःख आता था, तो पूरा मोहल्ला दुःखी हो जाता था। किसी को चोट लगती थी, तो हर हाथ मलहम बनकर आगे बढ़ता था। लेकिन आज?
आज हम दर्द को कैमरे में कैद करते हैं, संवेदना को स्टेटस में डालते हैं, और फिर आगे बढ़ जाते हैं।
आज के समय की सबसे बड़ी सामाजिक त्रासदी यही है – संवेदनहीनता की महामारी।
घटनाएं जो चौंकाती नहीं, बल्कि आदत बन गई हैं...
रेलवे स्टेशन पर एक वृद्ध महिला भूख से बेहोश पड़ी रही, लोग उसके बगल से गुजरते रहे…
स्कूल से लौटता बच्चा एक्सीडेंट में गिर पड़ा, भीड़ तमाशबीन बनी रही…
एक महिला घरेलू हिंसा का शिकार होती रही, पड़ोसी दीवारों से कान सटाए रहे, लेकिन आवाज नहीं उठी…
क्या हमारा समाज अब केवल “देखता” है, “महसूस” नहीं करता?
संवेदनहीनता के पीछे छिपे कारण
1. डिजिटल युग की दीवारें: हम ऑनलाइन जुड़ते जा रहे हैं, लेकिन दिलों से कटते जा रहे हैं। स्मार्टफोन में तो दुनिया है, पर पड़ोसी का हाल तक नहीं पता।
2. खुद की सुरक्षा का डर: लोग डरते हैं—अगर किसी की मदद की, तो कहीं उलझ न जाएं, पुलिस केस न हो जाए।
3. जीवन की आपाधापी: हर कोई भाग रहा है। समय नहीं, धैर्य नहीं, न ही अपने बाहर देखने की फुर्सत।
अब क्या किया जाए? – समाधान की खोज
1. संवेदनशीलता को पुनर्जीवित करें – बच्चों को पढ़ाएं कि मदद करना सबसे बड़ा धर्म है।
2. स्थानीय प्रयास बढ़ाएं – समाजसेवी संस्थाएं, क्लब, स्कूल ऐसे विषयों पर जन-जागरूकता फैलाएं।
3. मीडिया की भूमिका – मीडिया को भी चाहिए कि अपराध के साथ-साथ ‘मानवीयता के नायकों’ की कहानियों को जगह दे।
4. व्यक्तिगत पहल – कोई बड़ा आंदोलन शुरू करने की जरूरत नहीं, बस अगली बार किसी को जरूरत में देखें – रुकिए, पूछिए, मदद कीजिए।
अंतिम बात: संवेदनाएं मर गई हैं, या हम उन्हें जगा सकते हैं?
अगर हममें से हर व्यक्ति अपने आस-पास एक व्यक्ति की मदद करना शुरू कर दे, तो यह दुनिया जीने लायक बन जाएगी। समाज को संवेदनशील बनाने की शुरुआत किसी और से नहीं, हमसे होनी चाहिए।
आपसे सवाल:
आपने आखिरी बार किसी अनजान व्यक्ति की मदद कब की थी?
क्या आप आज किसी वृद्ध, अकेले या जरूरतमंद की मदद करने का संकल्प ले सकते हैं?
अगर हाँ, तो आप इस बदलाव का हिस्सा हैं, जिसकी इस समय सबसे ज्यादा जरूरत है।
डॉ मनीष वैद्य
सचिव
वृद्ध सेवा आश्रम (VSA)
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