मूल की ओर लौटो सनातन ही सर्वसमावेशी है...
आज जब हम इतिहास, धर्म और मानव सभ्यता की यात्रा पर दृष्टि डालते हैं, तो हमें स्पष्ट होता है कि हजारों वर्षों पूर्व जब न कोई इस्लाम था, न ईसाई, न बौद्ध, न जैन और न ही कोई ‘म्लेच्छ’ कहे जाने वाले पंथ, तब भी एक सार्वभौमिक, शाश्वत और वैज्ञानिक दर्शन मौजूद था सनातन धर्म। यह कोई संप्रदाय नहीं, अपितु जीवन जीने की सर्वश्रेष्ठ प्रणाली थी और है।
इतिहास की दृष्टि से...
विश्व के प्राचीनतम धर्मों में सनातन (हिंदू) धर्म अकेला ऐसा दर्शन है जिसकी जड़ें वैदिक युग से भी पहले की हैं।
बौद्ध धर्म की स्थापना ईसा पूर्व 6वीं शताब्दी में हुई।
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास है, परंतु महावीर स्वामी द्वारा इसे व्यवस्थित रूप दिया गया।
इस्लाम धर्म 7वीं शताब्दी में अरब में जन्मा।
ईसाई धर्म की शुरुआत यीशु मसीह के जन्म के बाद मानी जाती है (ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी)।
इन सब धर्मों और मतों की जड़ें जब खोजी जाती हैं, तो या तो वे सनातन की कोख से निकले सुधार आंदोलन होते हैं (जैसे बौद्ध और जैन) या फिर भौगोलिक, राजनीतिक कारणों से जन्मे नए मत। लेकिन भारत की धरती पर जन्मे हर विचार की आत्मा एक ही रही है धर्म, सत्य, करुणा, आत्मज्ञान।
धार्मिक और दार्शनिक दृष्टिकोण से...
भगवद्गीता (4.7-8) में श्रीकृष्ण कहते हैं
"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।।"
अर्थात जब-जब धर्म की हानि होती है और अधर्म बढ़ता है, तब-तब मैं स्वयं अवतरित होता हूँ धर्म की स्थापना और अधर्मियों के विनाश हेतु।
इसका तात्पर्य यही है कि धर्म केवल पूजा-पद्धति नहीं, बल्कि जीवन की सच्चाई, नीति और नीति का संरक्षण है। सनातन इसी सिद्धांत पर आधारित है।
ऋग्वेद (1.164.46) में कहा गया है...
"एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति।"
(सत्य एक ही है, परंतु ज्ञानी उसे अलग-अलग रूपों में बताते हैं।)
यह उद्घोष ही यह सिद्ध करता है कि सनातन धर्म सर्वसमावेशी है, वह किसी को नकारता नहीं, बल्कि सबको स्वीकारता है।
समकालीन संदर्भ और सामाजिक सन्देश...
वर्तमान में हम देखते हैं कि अनेक लोग, जो किसी समय इसी भूमि के पुत्र थे, आज अलग पंथों में बँटे हुए हैं। इनमें से कई को इतिहास ने जबरन बदला, कुछ को भ्रमित किया गया, और कुछ ने अपने अनुभवों से राहें बदल लीं।
लेकिन आज जब वे पुनः अपने मूल की खोज में हैं, जब वे अपने पूर्वजों, अपने रीति-रिवाजों और जड़ों को जानने को उत्सुक हैं तो हमारा उत्तर क्या होना चाहिए?
गुस्सा नहीं , स्वागत।
बहिष्कार नहीं , भाईचारा।
शब्दों का युद्ध नहीं, आत्मीय संवाद।
क्योंकि वे अपने ही हैं।
उनका गुस्सा अपनेपन की पीड़ा है।
उनका विरोध कहीं न कहीं छूटे हुए रिश्ते का आर्तनाद है।
और अंत में...
जो वृक्ष जितना विशाल होता है, उसकी छाया में उतनी ही अधिक शाखाएँ पनपती हैं। सनातन एक ऐसा ही वटवृक्ष है।
आज आवश्यकता है कि हम अपने बिछड़े भाइयों को अपनाएं, संवाद करें, और उन्हें बताएं...
"तुम कभी पराए थे ही नहीं, तुम्हारा घर यहीं था, है और रहेगा।"
आइए, मूल की ओर लौटें।
विवाद नहीं, संवाद करें।
विभाजन नहीं, समर्पण करें सनातन की ओर।
डॉ मनीष वैद्य
सचिव
वृद्ध सेवा आश्रम, रांची