वृद्धाश्रम के जिम्मेदार कौन – माता-पिता या बच्चे?एक सामाजिक चिंतन...
वर्तमान सामाजिक संरचना में वृद्धाश्रमों की बढ़ती संख्या और उसमें निवास करते बुजुर्गों की पीड़ा हमें बार-बार यह सोचने को विवश करती है कि इसके लिए जिम्मेदार कौन है – माता-पिता स्वयं, या उनके संतानें? यह प्रश्न केवल व्यक्तिगत नहीं, बल्कि व्यापक सामाजिक और नैतिक महत्व का है।
जहाँ एक ओर समाज आधुनिकता की ओर अग्रसर हो रहा है, वहीं पारिवारिक मूल्यों का क्षरण होता दिखाई दे रहा है। कभी जिन बुजुर्गों को घर की नींव और आशीर्वाद का प्रतीक माना जाता था, आज वही वृद्ध अपने जीवन के अंतिम पड़ाव में उपेक्षा, अकेलेपन और सामाजिक अलगाव का शिकार हो रहे हैं।
बच्चों की भूमिका और जिम्मेदारी...
परिवार में यदि बच्चों द्वारा माता-पिता की उपेक्षा की जाती है, उन्हें मानसिक या शारीरिक तौर पर कष्ट पहुँचाया जाता है, तो निःसंदेह यह नैतिक पतन का संकेत है। ऐसे में वृद्धाश्रम एक दुखद लेकिन अनिवार्य विकल्प बन जाता है। करियर, निजी जीवन और सुविधाओं की अंधी दौड़ में कुछ बच्चे अपने माता-पिता को ‘बोझ’ समझने लगते हैं। यह सामाजिक विडंबना अत्यंत दुखद है।
माता-पिता की भूमिका और स्वनिर्णय...
वहीं कुछ मामलों में माता-पिता भी स्वयं वृद्धाश्रम में रहने का निर्णय लेते हैं। यह निर्णय कभी आत्मसम्मान की भावना से प्रेरित होता है, तो कभी उनके भीतर का यह विश्वास कि वे अपने बच्चों पर निर्भर नहीं रहना चाहते। कई बुजुर्ग वृद्धाश्रम को अपनी स्वतंत्रता, समान सोच और भावनात्मक सहारा प्राप्त करने का एक माध्यम मानते हैं।
सामाजिक और आर्थिक दृष्टिकोण...
कई बार आर्थिक असमर्थता भी इस परिस्थिति को जन्म देती है। बच्चों की सीमित आय, रोजगार के लिए पलायन, या माता-पिता की स्वास्थ्य समस्याएँ – यह सभी कारण वृद्धाश्रम की आवश्यकता को जन्म देते हैं।
समाधान की ओर कदम...
समस्या के समाधान के लिए केवल दोषारोपण पर्याप्त नहीं।
परिवारों में संवाद और समझ की संस्कृति को पुनर्जीवित करना होगा।
संस्कार और सामाजिक उत्तरदायित्व की शिक्षा बचपन से ही दी जानी चाहिए।
सरकार को भी ऐसी नीतियाँ और योजनाएँ बनानी होंगी, जो बुजुर्गों को उनके परिवार में ही गरिमापूर्ण जीवन जीने की सुविधा दें।
और अंत में...
वृद्धाश्रम किसी एक पक्ष की विफलता का परिणाम नहीं, बल्कि पूरे समाज की सोच और व्यवस्था का दर्पण है। आवश्यक है कि हम अपनी परंपराओं, मूल्यों और मानवीय भावनाओं की पुनः स्थापना करें। माता-पिता और संतानें दोनों एक-दूसरे की जिम्मेदारी और भावनाओं को समझें, तभी एक सशक्त और संवेदनशील समाज की कल्पना संभव है।
डॉ मनीष वैद्य!
सचिव
वृद्ध सेवा आश्रम, रांची