भारत में वृद्धाश्रम कितना औचित्य? एक सामाजिक, नैतिक और व्यावहारिक दृष्टिकोण से विश्लेषण...

भारत, जहाँ ‘माँ-बाप भगवान समान होते हैं’ की संस्कृति रची-बसी है, वहाँ वृद्धों को वृद्धाश्रम में भेजना एक भावनात्मक और नैतिक बहस का विषय बन गया है। बदलते सामाजिक मूल्य और व्यावसायिक जीवन की भागदौड़ के बीच यह सवाल उभरता है क्या भारत में वृद्धाश्रमों का औचित्य है? आइए इसे विस्तार से समझें।

भारतीय समाज सदियों से संयुक्त परिवारों की परंपरा पर आधारित रहा है। बुज़ुर्गों को घर का मुखिया माना जाता था, निर्णयों में उनकी भूमिका केंद्रीय होती थी। परंतु, आज के समय में परमाणु परिवारों का चलन बढ़ा है। नौकरी के लिए शहरों में पलायन, महिलाओं की कार्यस्थल पर भागीदारी और जीवनशैली में बदलाव ने बुजुर्गों की पारंपरिक भूमिका को सीमित कर दिया है।
इन कारणों से कई वृद्ध स्वयं को उपेक्षित महसूस करते हैं। ऐसे में वृद्धाश्रम उनके लिए एक विकल्प के रूप में उभरता है, जहाँ वे अपनी उम्र के लोगों के साथ सम्मानपूर्वक जीवन बिता सकते हैं।

कुछ वृद्ध अपने निर्णय से वृद्धाश्रम में रहना पसंद करते हैं, जहाँ नियमित देखभाल, स्वास्थ्य सुविधाएँ और साथी मिलते हैं। यह उनके लिए आत्मनिर्भरता और मानसिक शांति का जरिया होता है।

जब यह मजबूरी बनता है...
कई बार बच्चे अपनी ज़िम्मेदारी से बचने के लिए या स्वार्थवश माता-पिता को वृद्धाश्रम में छोड़ देते हैं। यह स्थिति नैतिक पतन का परिचायक बनती है और हमारी पारिवारिक प्रणाली पर प्रश्नचिह्न खड़ा करती है।

भारतीय संस्कृति में ‘पितृ ऋण’ की अवधारणा रही है, जिसमें माता-पिता की सेवा करना पुत्रधर्म माना गया है। ऐसे में वृद्धाश्रम में माता-पिता का रहना हमारे नैतिक मूल्यों के क्षरण की ओर संकेत करता है। परंतु जब परिवार में हिंसा, उपेक्षा या भावनात्मक शोषण होता है, तब वृद्धों के लिए सुरक्षित और सम्मानजनक जीवन की तलाश में वृद्धाश्रम की भूमिका आवश्यक हो जाती है।

राज्य और समाज की भूमिका...

सरकार ने ‘Maintenance and Welfare of Parents and Senior Citizens Act, 2007’ जैसे कानून बनाए हैं, जो वृद्धों के अधिकारों की रक्षा करते हैं। "वृद्ध सेवा आश्रम, रांची"  जैसे कई एनजीओ और सामाजिक संस्थाएं भी वृद्धाश्रमों को सेवा केंद्र के रूप में संचालित कर रही हैं।

परंतु आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में जागरूकता की कमी, आर्थिक तंगी और सामाजिक कलंक के कारण वृद्धाश्रमों की स्थिति संतोषजनक नहीं है। जरूरत है कि इन्हें "त्याग का प्रतीक" न मानकर "सम्मानजनक जीवन" का केंद्र समझा जाए।

समाधान और भविष्य की राह...

सामाजिक पुनर्जागरण जैसे परिवारों में फिर से बुजुर्गों के लिए सम्मान, संवाद और सहयोग की भावना को प्रोत्साहित किया जाए।

वृद्ध सेवा आश्रम, रांची के द्वारा वैकल्पिक मॉडल ‘डे केयर सेंटर्स’, ‘सहयोगी आवास’ और ‘पारिवारिक पुनर्वास योजनाओं’ जैसे विकल्प पूरे भारत देश में विकसित किए जा रहे हैं।

सरकार भी वृद्धाश्रमों को मानक गुणवत्ता की सेवा केंद्रों के रूप में विकसित करे और निजी भागीदारी को बढ़ावा दे।

और अंत में...

भारत में वृद्धाश्रमों की आवश्यकता परिस्थितिजन्य है। यह न तो संपूर्ण समाधान हैं और न ही सामाजिक विफलता के प्रतीक। सही दृष्टिकोण, नीति और समाज के सहयोग से हम वृद्धों को परिवार के साथ या वृद्धाश्रम में, दोनों ही स्थितियों में गरिमामय जीवन दे सकते हैं।

"जहाँ बुज़ुर्ग सम्मान से जिएँ, वही सच्चा भारत है।"

डॉ मनीष वैद्य!
सचिव 
वृद्ध सेवा आश्रम, रांची

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