परंपरा के नाम पर समाज का नफा और नुकसान...

भारत एक परंपराओं का देश है, जहाँ हर क्षेत्र, हर जाति, हर धर्म की अपनी विशिष्ट परंपराएँ हैं। ये परंपराएँ हमारी सांस्कृतिक पहचान हैं, जो हमें हमारे अतीत से जोड़ती हैं और हमारे समाज को एक ढांचे में बाँधती हैं। परंतु समय के साथ जब परंपराएँ बदलाव से इनकार करने लगती हैं या अंधविश्वास और भेदभाव को जन्म देने लगती हैं, तब वही परंपराएँ समाज के विकास में बाधक बन जाती हैं।

परंपराओं का सामाजिक लाभ

1. सांस्कृतिक एकता और पहचान:
परंपराएँ एक समाज की आत्मा होती हैं। पर्व-त्योहार, रीति-रिवाज, वेशभूषा और खानपान हमारी सांस्कृतिक विरासत को संजोए रखते हैं। इससे लोगों में आपसी भाईचारा और आत्मीयता का विकास होता है।

2. नैतिक शिक्षा और अनुशासन:
कई परंपराएँ जैसे बड़ों का सम्मान, अतिथि को देवता मानना, संयम और सेवा का भाव – ये सभी सामाजिक सौहार्द और नैतिक मूल्यों को मजबूत करते हैं।

3. सामूहिकता और सहयोग की भावना:
धार्मिक उत्सव, शादी-ब्याह, लोकनृत्य, मेलों आदि में सामूहिक भागीदारी समाज में सहयोग और सहभागिता की भावना को बल देती है।

परंपराओं से होने वाला सामाजिक नुकसान

1. अंधविश्वास और रूढ़िवादिता:
कुछ परंपराएँ जैसे जादू-टोना, बाल विवाह, पर्दा प्रथा, जाति-प्रथा, स्त्री-पुरुष भेदभाव आज भी समाज में व्याप्त हैं। ये परंपराएँ न सिर्फ वैज्ञानिक सोच का विरोध करती हैं, बल्कि मानवीय अधिकारों का हनन भी करती हैं।

2. विकास में बाधा:
यदि परंपराएँ समय के साथ नहीं बदलतीं, तो वे युवाओं की सोच और नवाचार को रोकती हैं। आधुनिक शिक्षा और वैज्ञानिक सोच के साथ तालमेल न बैठाने वाली परंपराएँ समाज को पीछे ले जाती हैं।

3. महिलाओं और कमजोर वर्गों का शोषण:
कई परंपराओं के नाम पर महिलाओं, दलितों और अन्य वंचित वर्गों को सदियों से सामाजिक अन्याय का शिकार बनाया गया है। विधवा प्रथा, दहेज प्रथा, छुआछूत आदि इसके उदाहरण हैं।

समाज की जिम्मेदारी

समाज को यह समझना होगा कि परंपराएँ केवल तब तक मूल्यवान हैं, जब तक वे मानवता के हित में हों। समय के साथ परंपराओं का पुनर्मूल्यांकन आवश्यक है। जो परंपराएँ सामाजिक सद्भाव, न्याय, और विकास को बढ़ावा देती हैं, उन्हें संरक्षित किया जाना चाहिए। वहीं जो परंपराएँ भेदभाव, हिंसा या अन्याय को जन्म देती हैं, उनका बहिष्कार आवश्यक है।

और अंत में:

परंपरा हमारी जड़ें हैं, लेकिन अगर वे जड़ें सड़ने लगें, तो उन्हें काटकर नया पौधा लगाना पड़ता है। समाज को चाहिए कि वह परंपरा और परिवर्तन के बीच संतुलन बनाए रखे। तभी एक प्रगतिशील, न्यायसंगत और समावेशी समाज की स्थापना संभव हो सकेगी।

डॉ. मनीष वैद्य 
सचिव 
वृद्ध सेवा आश्रम, रांची

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