बुजुर्गों को प्रताड़ित करने वाले बेटे-बहू का सामाजिक बहिष्कार: एक भावनात्मक और सामाजिक दृष्टिकोण...

बुजुर्ग हमारे समाज की जड़ें होते हैं। वे अनुभव, संस्कार और सहिष्णुता के प्रतीक हैं। जीवन के हर उतार-चढ़ाव को पार कर वे उस मुकाम पर पहुँचते हैं जहाँ उन्हें स्नेह, सम्मान और सहारा मिलना चाहिए। दुर्भाग्यवश, आज के समाज में कई जगह ऐसी घटनाएं सामने आ रही हैं जहाँ बुजुर्गों को उनके अपने ही बेटे-बहू द्वारा प्रताड़ित किया जा रहा है – शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से।

भावनात्मक पीड़ा: उम्र के साथ टूटा विश्वास...

जब वही संतान, जिसे पालने-पोसने में उन्होंने अपना जीवन खपा दिया, बुजुर्ग माता-पिता को अपमानित करती है, उपेक्षित करती है या संपत्ति के लालच में उन्हें प्रताड़ित करती है, तो यह केवल एक व्यक्ति का नहीं, बल्कि मानवता का अपमान है। बुजुर्गों की आँखों में वो असहाय आँसू सिर्फ दर्द नहीं, एक टूटा हुआ विश्वास दर्शाते हैं – एक ऐसा विश्वास जो उन्होंने जीवन भर अपने बच्चों में बनाए रखा।

सामाजिक जिम्मेदारी और बहिष्कार की आवश्यकता...

समाज का यह दायित्व बनता है कि वह ऐसे अमानवीय कृत्यों पर चुप न बैठे। जब कोई बेटा-बहू बुजुर्गों के साथ दुर्व्यवहार करते हैं, उन्हें घर से निकालते हैं, या उनके साथ अमानवीय व्यवहार करते हैं, तो ऐसे लोगों का सामाजिक बहिष्कार आवश्यक है।

सामाजिक बहिष्कार का अर्थ यहाँ केवल मेल-जोल बंद करना नहीं है, बल्कि उन्हें यह महसूस कराना कि उनका कृत्य समाज की दृष्टि में अस्वीकार्य है। यह कदम न केवल पीड़ित बुजुर्गों के लिए न्याय का संकेत होगा, बल्कि अन्य लोगों के लिए एक चेतावनी भी बनेगा।

समाधान की ओर

1. कानूनी सहायता: Maintenance and Welfare of Parents and Senior Citizens Act (2007) के अंतर्गत बुजुर्गों को संरक्षण प्रदान किया गया है, लेकिन जागरूकता की कमी के कारण वे इसका लाभ नहीं ले पाते।

2. सामाजिक संगठनों की भूमिका: NGO, वृद्धाश्रम, और सामाजिक संस्थाएं मिलकर ऐसी घटनाओं पर सख्त रुख अपनाएं और पीड़ितों को सहायता प्रदान करें।

3. पारिवारिक मूल्यों की पुनर्स्थापना: बचपन से ही बच्चों में बुजुर्गों के प्रति सम्मान और करुणा का संस्कार डालना आवश्यक है।

और अंत में...

बुजुर्गों को प्रताड़ित करने वालों का सामाजिक बहिष्कार केवल एक सजा नहीं, बल्कि एक सामाजिक संदेश है – कि बुजुर्गों की गरिमा से कोई समझौता नहीं किया जा सकता। यह भावनात्मक रूप से एक ऐसी पुकार है जिसे समाज को गंभीरता से सुनना होगा। एक समाज तभी सभ्य कहलाता है जब वह अपने सबसे कमजोर वर्ग को भी सुरक्षा और सम्मान देता है – और बुजुर्ग उस वर्ग के सबसे प्रमुख सदस्य हैं।

"छाँव थे जो, अब अकेले हैं…"

छाँव थे जो, अब धूप सहते हैं,
अपनों के बीच, पर अकेले रहते हैं।
हाथ थाम कर जिनको चलना सिखाया,
उन्हीं हाथों से अब धक्का खाते हैं।

आशीर्वाद बने जो छत हमारी,
आज उन्हीं को छत से निकाला गया।
घर जिसने संवारा, रिश्ते बुने थे,
उन्हीं को बेगाना बना दिया गया।

बेटे-बहू ने कह दिया – “बोझ हैं ये,”
कभी भगवान माने, अब श्राप जैसे।
संस्कार मिटे, मोह-माया बढ़ी,
दिलों में जगह अब स्वार्थ की पड़ी।

पर ये मत भूलो, समाज देखता है,
हर आह को समय लेखता है।
जो बुजुर्गों को देंगे दुखों की सौगात,
उन्हें मिलेगा तिरस्कार का साथ।

बहिष्कार होगा, पर बदलाव के लिए,
मानवता की लौ जलाने के लिए।
समाज जागे, यह वक्त की पुकार है,
बुजुर्गों का सम्मान – यही असली सत्कार है

डॉ मनीष वैद्य!
सचिव 
वृद्ध सेवा आश्रम, रांची

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