आधुनिक युग और भारत की सभ्यता: एक सांस्कृतिक चेतना की पुकार
विज्ञान और तकनीक के इस युग ने हमारे जीवन को जितना सुगम और तेज बनाया है, उतना ही हमें हमारी जड़ों से भी दूर किया है। इंटरनेट, स्मार्टफोन और कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) के इस दौर में हम भले ही वैश्विक नागरिक बन रहे हैं, परंतु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हम उस भारतवर्ष के वंशज हैं जिसकी सभ्यता ने ‘मानवता’ को धर्म से जोड़ा और ‘सेवा’ को संस्कार का रूप दिया।
भारत की संस्कृति की आत्मा उसके संस्कारों, परिवार व्यवस्था और वृद्धजनों के प्रति आदरभाव में बसती है। यह वही देश है जहाँ वृद्धों की सेवा को पुण्य और उनका मार्गदर्शन जीवन का प्रकाश माना गया है। किंतु आधुनिकता की अंधी दौड़ में आज यही वृद्धजन उपेक्षा, एकाकीपन और असुरक्षा के शिकार हो रहे हैं।
आज की चुनौती – संवेदनाओं का क्षरण
बदलती जीवनशैली, एकल परिवारों की बढ़ती प्रवृत्ति, और व्यस्तता ने वृद्धजनों को समाज के हाशिये पर लाकर खड़ा कर दिया है। वे जिनकी अनुभव की पूँजी कभी समाज का आधार थी, आज स्वयं सहायता की प्रतीक्षा में हैं। यह केवल सामाजिक संकट नहीं, हमारी सभ्यता की आत्मा पर चोट है।
हमारी संस्था की भूमिका
हमारा एनजीओ "वृद्ध सेवा आश्रम, रांची" इसी चेतना के साथ कार्यरत है—कि भारत की आधुनिक प्रगति तब तक अधूरी है जब तक वृद्धजनों को सम्मान, सुरक्षा और सक्रिय भागीदारी का अधिकार न मिले। हमारी कार्ययोजनाएँ—ग्रामीण,शहरी क्षेत्रों में वृद्धजनों की सदस्यता, स्वास्थ्य सेवाएँ, कानूनी सहायता, और सामाजिक पुनर्संलग्नता के प्रयास—संस्कृति और संवेदना को जोड़ने का प्रयास हैं।
संस्कृति और तकनीक: समन्वय की राह
हम मानते हैं कि आधुनिकता और संस्कृति एक-दूसरे के विरोधी नहीं, पूरक हो सकते हैं। तकनीक का प्रयोग अगर सेवा के लिए हो, और विकास का आधार यदि मानवीय संवेदना हो, तो हम एक ऐसे भारत का निर्माण कर सकते हैं जहाँ वृद्धजन सिर्फ सम्मानित ही नहीं, आवश्यक भी माने जाएँ।
समाप्ति नहीं, आरंभ है यह संकल्प
आज आवश्यकता है—संवेदना से सम्पन्न आधुनिक भारत की। एक ऐसा भारत जो वृद्धजनों को बोझ नहीं, धरोहर माने। यह कार्य अकेले किसी संस्था का नहीं, पूरे समाज का है। आइए, हम सब मिलकर इस सांस्कृतिक पुनर्जागरण में सहभागी बनें।
"वृद्धजन हमारे अतीत की जीवित धरोहर हैं—आइए उन्हें वर्तमान का सम्मान और भविष्य की सुरक्षा दें।"
डॉ. मनीष वैद्य
सचिव
वृद्ध सेवा आश्रम, रांची