किसी भी धर्म या संप्रदाय में पशुओं की बलि की इजाजत नहीं — एक तार्किक और विस्तृत विश्लेषण...

भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में धर्म और आस्था का लोगों के जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है। विभिन्न धर्मों और संप्रदायों की परंपराएं और रीति-रिवाज समय के साथ विकसित हुए हैं, किंतु इनमें से कई परंपराएं आज की मानवीय, नैतिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से चुनौतीपूर्ण प्रतीत होती हैं। ऐसी ही एक परंपरा है — पशुबलि। मेरा यह लेख इसी विषय की तार्किक, धार्मिक, संवैधानिक और मानवीय दृष्टिकोण से विवेचना करता है कि किसी भी धर्म में वस्तुतः पशुबलि की आज्ञा नहीं है, और यदि कहीं इसका उल्लेख है भी, तो वह प्रतीकात्मक या ऐतिहासिक सन्दर्भों में है, न कि आज के समय में लागू करने योग्य।

1. धार्मिक दृष्टिकोण से विश्लेषण

(क) हिन्दू धर्म:

वेदों में: ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद — किसी में भी पशुहत्या को प्रोत्साहित नहीं किया गया। यजुर्वेद (36.18) कहता है:
"अहिंसा परमॊ धर्मः" — यानी अहिंसा ही परम धर्म है।

गांधीजी का दृष्टिकोण: महात्मा गांधी ने कहा था, "जो धर्म पशुओं की हत्या को उचित ठहराता हो, वह धर्म नहीं हो सकता।"

शाकाहार की परंपरा: हिन्दू परंपरा में गाय, बैल, बकरी आदि को पूजनीय माना गया है। नवरात्रि, एकादशी, श्रावण मास जैसे उपवास पर्व मांसाहार और हिंसा से दूर रहने की प्रेरणा देते हैं।

काली पूजा में बलि की परंपरा: कुछ क्षेत्रों में यह परंपरा है, लेकिन यह लोकाचार है, शास्त्रीय आदेश नहीं। आधुनिक संत जैसे रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद ने इसे त्यागने की बात कही।

(ख) इस्लाम धर्म:

कुरआन में स्पष्ट निर्देश:
अल-कुरआन 22:37 कहता है —
"न उनका मांस अल्लाह तक पहुँचता है और न उनका खून, बल्कि तुम्हारी परहेजगारी (तक्वा) पहुँचती है।"
यानी, बलि का मांस या खून नहीं, बल्कि नीयत मायने रखती है।

बलिदान का प्रतीकवाद: बकरीद (ईद-उल-अजहा) के अवसर पर हजरत इब्राहीम की अल्लाह के प्रति निष्ठा की स्मृति में बलिदान का प्रतीकात्मक कार्य किया जाता है। कुरबानी जरूरी नहीं, विकल्प दिए गए हैं जैसे जरूरतमंदों को दान, रोजे या भिक्षुओं की सहायता।

अहिंसा को महत्व: इस्लाम में भी जानवरों के साथ दया और करुणा का सन्देश है। पैगंबर मोहम्मद साहब ने जानवरों को अनावश्यक कष्ट देने की निंदा की है।

(ग) सिख धर्म:

सिख धर्म में पशुबलि को 'कुर्बानी' के रूप में खारिज किया गया है। गुरु गोबिंद सिंह ने 'कृपाण' को आत्मरक्षा के लिए बताया, न कि हिंसा या बलि के लिए।

'जट्का' की प्रथा की कुछ चर्चा है, परंतु यह भी ऐतिहासिक-सांस्कृतिक है, धर्म का मूल सिद्धांत नहीं।

(घ) बौद्ध धर्म:

यह संपूर्णतः अहिंसा पर आधारित धर्म है। गौतम बुद्ध ने स्पष्ट रूप से जीवहत्या को पाप और दुःख का कारण बताया है।

पांच प्रमुख सिद्धांतों में पहला है — "प्राणियों की हत्या न करना।"

(ङ) जैन धर्म:

अहिंसा का सर्वाधिक कठोर पालन इसी धर्म में होता है। यहां तक कि सूक्ष्म जीवों को भी क्षति न हो, इसका ध्यान रखा जाता है।

पशुबलि का कोई स्थान नहीं।

2. तार्किक और नैतिक दृष्टिकोण

बलि की प्रथा तर्कहीन है: कोई सर्वशक्तिमान ईश्वर क्यों चाहता होगा कि उसकी प्रसन्नता के लिए किसी बेजुबान प्राणी की हत्या की जाए?

प्राकृतिक असंतुलन: बड़े पैमाने पर पशुबलि से पारिस्थितिकी और जैव विविधता को क्षति पहुँचती है।

मनुष्यता के विरुद्ध: जो समाज दया, करुणा और समभाव की शिक्षा देता है, वहां बलि जैसी हिंसक परंपराएं संज्ञान और संवेदना के विरुद्ध हैं।

बच्चों पर मानसिक असर: पर्वों में पशुहत्या का दृश्य बच्चों के मन पर हिंसक प्रभाव डालता है, जिससे उनमें करुणा की भावना कुंठित होती है।

3. कानूनी और संवैधानिक पक्ष

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 48 कहता है: "राज्य, कृषि और पशुपालन को आधुनिक व वैज्ञानिक पद्धतियों पर संगठित करेगा और दूध देने वाले पशुओं की हत्या को प्रतिबंधित करेगा।"

अधिनियम:

पशु क्रूरता निवारण अधिनियम, 1960 — किसी भी पशु के प्रति अनावश्यक कष्ट को अपराध मानता है।

कई राज्यों में गैरकानूनी बलि स्थलों पर पशु वध करना दंडनीय अपराध है।

न्यायिक दृष्टांत: सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट कई बार स्पष्ट कर चुके हैं कि धार्मिक स्वतंत्रता का अर्थ यह नहीं कि जानवरों की क्रूर हत्या की जाए।

4. समाधान और विकल्प

प्रतीकात्मक बलिदान: फल, नारियल, मिठाई आदि को 'बलि' का रूप दिया जा सकता है।

जागरूकता अभियान: धार्मिक नेताओं और संतों को आगे आकर जनता को यह समझाना चाहिए कि धर्म करुणा और संवेदना का नाम है, न कि रक्त की प्यास।

नैतिक शिक्षा: स्कूलों, मंदिरों, मस्जिदों और गुरुद्वारों में पशु अधिकारों और अहिंसा पर आधारित शिक्षा दी जानी चाहिए।

और अंत में...

कोई भी धर्म हिंसा को नहीं बढ़ावा देता। पशुबलि की प्रथा न तो धार्मिक आदेश है, न ही नैतिक रूप से स्वीकार्य। यह एक लोकपरंपरा है जिसे समय और विवेक के साथ बदलना आवश्यक है। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने धार्मिक मूल्यों को आधुनिक संवेदना और विज्ञान के आलोक में पुनः परिभाषित करें। करुणा, दया और अहिंसा ही सच्चे धर्म के प्रतीक हैं — न कि बलिदान का रक्त।

डॉ मनीष वैद्य!
सचिव 
वृद्ध सेवा आश्रम, रांची

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