"माँ अब भी मुस्कराती है…"
उसके चेहरे की झुर्रियाँ कोई साधारण रेखाएं नहीं, वो जीवन की संघर्षगाथा हैं।
साड़ी के पल्लू में छिपी शर्म नहीं, बल्कि वर्षों की चुप्पी है, जो कहती है —
"बेटा, तुम तो बड़े हो गए, पर क्या इंसान भी बने?"
यह तस्वीर एक बुजुर्ग माँ की नहीं,
पूरे समाज की संवेदनहीनता की तस्वीर है।
जिसने पाल-पोसकर बच्चों को इस काबिल बनाया कि वो उड़ सकें,
पर जब वो चलने लायक नहीं रही,
तो बेटा उड़ गया… और माँ अकेली रह गई।
🍂 बेटों ने कहा:
"अब कहाँ संभाल पाएंगे, काम बहुत है..."
🌪️ बेटियों ने सोचा:
"ससुराल की जिम्मेदारियाँ हैं, क्या करें..."
पर माँ ने कुछ नहीं कहा।
वो चुप रही।
सिर्फ मुस्कराई — उसी झुकी कमर, उसी कांपते हाथ और फटे आँचल में भी दुआओं की दौलत लिए।
❝ माँ कोई बोझ नहीं होती... ❞
वो तो वो दीवार है, जो तूफानों में भी दरकती नहीं,
वो तो वो छाँव है, जो धूप में भी सुकून देती है।
आज अगर वह किसी वृद्धाश्रम के कोने में बैठकर
अपने ही बच्चों की तस्वीरों को ताक रही है,
तो दोष सिर्फ उस माँ का नहीं,
दोष उस समाज का भी है जो बेटे की तरक्की पर तालियाँ बजाता है
और माँ के आँसुओं पर मौन हो जाता है।
समापन में:
अगर आप इस लेख को पढ़ रहे हैं और आपकी माँ अभी भी जीवित हैं,
तो उसे गले लगाइए, उसके पाँव छुइए,
क्योंकि एक दिन आपके पास सबकुछ होगा — पर माँ नहीं होगी।
मनीष वैद्य
सचिव
वृद्ध सेवा आश्रम (VSA)
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