शहरीकरण: सुविधा या संवेदनहीनता?लेखक: डॉ. मनीष वैद्य।
जब हम गाँवों की शांति और अपनत्व से निकलकर शहर की तेज रफ्तार जिंदगी में कदम रखते हैं, तो एक सवाल मन में जरूर उठता है क्या हम विकास की ओर जा रहे हैं या केवल भीड़ में खोने?
शहरीकरण ने हमें ऊँची इमारतें, चौड़ी सड़कें, एयर कंडीशनर वाले दफ्तर और हर पल इंटरनेट से जुड़ा जीवन दिया है। लेकिन इन सबके बीच, क्या हम वो खो बैठे हैं, जिसे "समाज" कहा जाता था?
विकास की दौड़ में अकेलेपन का बढ़ता साया
शहरों में भले ही हर चीज ‘फास्ट’ हो गई हो, इंटरनेट से लेकर खाना और गाड़ियाँ तक लेकिन रिश्ते धीरे-धीरे ‘स्लो’ हो गए हैं।
अब दूसरे के सुख-दुख में शामिल होना समय की बर्बादी माना जाता है।
पड़ोसी कौन है? ये भी लोग गूगल से जानना चाहते हैं।
वृद्धजन – शहर में सबसे अकेले इंसान
शहरीकरण ने जिन लोगों को सबसे ज्यादा प्रभावित किया है, वो हैं हमारे वृद्धजन।
जहां पहले उन्हें घर का मुखिया और मार्गदर्शक माना जाता था, अब वे कमरे में बंद, पुराने मोबाइल में घूरते हुए दिखाई देते हैं।
क्या यही है आधुनिकता?
बचपन – जो अब गली में नहीं, गैजेट में बीतता है
जहां पहले शाम का मतलब था – गली क्रिकेट, पतंग, छुपन-छुपाई; अब वही शाम फोन की स्क्रीन के पीछे खामोश हो जाती है।
शहर के बच्चे अब "पेड़ पर चढ़ना" नहीं, "गेम में लेवल अप करना" जानते हैं।
तो क्या शहरीकरण गलत है? नहीं!
शहरीकरण अगर सुविधा और संस्कृति का संतुलन बनाकर चले तो यह वरदान है।
जरूरत है ऐसे शहरों की जो केवल स्मार्ट नहीं, संवेदनशील भी हों।
क्या कर सकते हैं हम?
एक दिन पड़ोसी के घर बिना बुलावे जाएँ।
बच्चों को पार्क और दादा-दादी दोनों से जोड़ें।
वृद्धों की कहानियाँ सुनें, उन्हें अकेले न छोड़ें।
और सबसे जरूरी,अपनी स्पीड कम कर, समाज से फिर एक बार जुड़ें।
और अंत में:
शहरों की चकाचौंध में अगर इंसानियत खो जाए, तो वो उजाला नहीं, अंधेरा है।
शहरीकरण एक अवसर है,समाज को फिर से जोड़ने का, न कि तोड़ने का।
डॉ मनीष वैद्य।
सचिव
वृद्ध सेवा आश्रम, रांची