"हॉस्टल स्वाभाविक है तो वृद्धाश्रम क्यों अपराध?"

जब एक बच्चा बड़ा होता है, तो शिक्षा के लिए घर छोड़ता है। माता-पिता खुद अपने हाथों से उसका सामान तैयार करते हैं, उसकी पसंद की चीजें रखकर कहते हैं – "बेटा, मन लगाकर पढ़ना। चिंता मत करना, हम यहीं हैं।"

बच्चा नए माहौल में जाता है – हॉस्टल। वहां की जिदंगी उसे अनुशासन, संघर्ष और आत्मनिर्भरता सिखाती है। धीरे-धीरे वह वहां का आदि हो जाता है, वहीं दोस्त बना लेता है, खाना वहीं का खा लेता है, और माता-पिता का प्यार अब फोन कॉल और छुट्टियों तक सिमट जाता है। पर माता-पिता उस दूरी को "बेटे का भविष्य" मानकर खुशी-खुशी सह लेते हैं।

अब समय आगे बढ़ता है।

बच्चा नौकरी करता है, शादी करता है, खुद माता-पिता बनता है। लेकिन उसी दौरान उसके अपने माता-पिता बूढ़े हो जाते हैं। शरीर जवाब देने लगता है, अकेलापन कचोटने लगता है। उन्हें देखभाल चाहिए, सहारा चाहिए, वो प्यार चाहिए जो कभी उन्होंने हमें दिया था।

और तब?

तब अगर वही माता-पिता वृद्धाश्रम में हों, तो हम आंखें तरेरते हैं, उंगली उठाते हैं, ताने देते हैं। कहते हैं – "कैसा बेटा है जो मां-बाप को वृद्धाश्रम में छोड़ आया!"

पर क्या कभी सोचा... जब बच्चे को आत्मनिर्भरता सिखाने के लिए हॉस्टल जरूरी था, तब बुढ़ापे में अकेलेपन से बचाने के लिए वृद्धाश्रम क्यों नहीं?

क्या वृद्धाश्रम केवल 'छोड़ आने' की जगह है?

नहीं।
वृद्धाश्रम एक विकल्प है – जहां उनके जैसे कई बुजुर्ग होते हैं, जिनके साथ वो हँसते हैं, बातें करते हैं, यादें बाँटते हैं। जहां उन्हें सम्मान, देखभाल और एक नया सामाजिक परिवार मिलता है।
यह वह स्थान हो सकता है जहां वे फिर से जीवंत महसूस करें – न कि उपेक्षित।

हमें अपनी सोच बदलनी होगी।
माता-पिता को वृद्धाश्रम भेजना अपराध नहीं है, उन्हें अकेले छोड़ देना अपराध है।

यदि घर पर आप उन्हें समय, स्नेह और देखभाल नहीं दे सकते, तो किसी ऐसे स्थान का चयन कीजिए जहाँ ये सब उन्हें मिल सके।

आइए, वृद्धाश्रम को कलंक नहीं, विकल्प मानें।
प्यार का एक नया स्वरूप – जो शायद हमारी व्यस्त जिंदगी में उनका सम्मानपूर्वक साथ निभाने का माध्यम बने।

आँखें खोलने का वक्त है –
क्योंकि माँ-बाप को अकेले छोड़ना सबसे बड़ी ‘अमानवीयता’ है, चाहे वो चार दीवारी में हो या किसी आलीशान बंगले में।

मनीष वैद्य 
सचिव 
वृद्ध सेवा आश्रम (VSA)

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