"हॉस्टल स्वाभाविक है तो वृद्धाश्रम क्यों अपराध?"
जब एक बच्चा बड़ा होता है, तो शिक्षा के लिए घर छोड़ता है। माता-पिता खुद अपने हाथों से उसका सामान तैयार करते हैं, उसकी पसंद की चीजें रखकर कहते हैं – "बेटा, मन लगाकर पढ़ना। चिंता मत करना, हम यहीं हैं।" बच्चा नए माहौल में जाता है – हॉस्टल। वहां की जिदंगी उसे अनुशासन, संघर्ष और आत्मनिर्भरता सिखाती है। धीरे-धीरे वह वहां का आदि हो जाता है, वहीं दोस्त बना लेता है, खाना वहीं का खा लेता है, और माता-पिता का प्यार अब फोन कॉल और छुट्टियों तक सिमट जाता है। पर माता-पिता उस दूरी को "बेटे का भविष्य" मानकर खुशी-खुशी सह लेते हैं। अब समय आगे बढ़ता है। बच्चा नौकरी करता है, शादी करता है, खुद माता-पिता बनता है। लेकिन उसी दौरान उसके अपने माता-पिता बूढ़े हो जाते हैं। शरीर जवाब देने लगता है, अकेलापन कचोटने लगता है। उन्हें देखभाल चाहिए, सहारा चाहिए, वो प्यार चाहिए जो कभी उन्होंने हमें दिया था। और तब? तब अगर वही माता-पिता वृद्धाश्रम में हों, तो हम आंखें तरेरते हैं, उंगली उठाते हैं, ताने देते हैं। कहते हैं – "कैसा बेटा है जो मां-बाप को वृद्धाश्रम में छोड़ आया!" पर क्या कभी सोचा... जब ...