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"हॉस्टल स्वाभाविक है तो वृद्धाश्रम क्यों अपराध?"

जब एक बच्चा बड़ा होता है, तो शिक्षा के लिए घर छोड़ता है। माता-पिता खुद अपने हाथों से उसका सामान तैयार करते हैं, उसकी पसंद की चीजें रखकर कहते हैं – "बेटा, मन लगाकर पढ़ना। चिंता मत करना, हम यहीं हैं।" बच्चा नए माहौल में जाता है – हॉस्टल। वहां की जिदंगी उसे अनुशासन, संघर्ष और आत्मनिर्भरता सिखाती है। धीरे-धीरे वह वहां का आदि हो जाता है, वहीं दोस्त बना लेता है, खाना वहीं का खा लेता है, और माता-पिता का प्यार अब फोन कॉल और छुट्टियों तक सिमट जाता है। पर माता-पिता उस दूरी को "बेटे का भविष्य" मानकर खुशी-खुशी सह लेते हैं। अब समय आगे बढ़ता है। बच्चा नौकरी करता है, शादी करता है, खुद माता-पिता बनता है। लेकिन उसी दौरान उसके अपने माता-पिता बूढ़े हो जाते हैं। शरीर जवाब देने लगता है, अकेलापन कचोटने लगता है। उन्हें देखभाल चाहिए, सहारा चाहिए, वो प्यार चाहिए जो कभी उन्होंने हमें दिया था। और तब? तब अगर वही माता-पिता वृद्धाश्रम में हों, तो हम आंखें तरेरते हैं, उंगली उठाते हैं, ताने देते हैं। कहते हैं – "कैसा बेटा है जो मां-बाप को वृद्धाश्रम में छोड़ आया!" पर क्या कभी सोचा... जब ...

"मानसिक विकास की वह ऊँचाई, जहाँ लोग आपको समझने के लिए खुद को बदलें"

आज के इस तेजी से बदलते युग में हर कोई चाहता है कि लोग उसे समझें, सराहें और स्वीकार करें। पर क्या हमने कभी सोचा है कि क्या हम स्वयं को उस स्तर पर ले जा सके हैं जहाँ हमारी सोच, हमारी दृष्टि और हमारे मूल्यों को समझने के लिए लोगों को अपनी सोच का विस्तार करना पड़े? "अपने-आपको मानसिक रूप से इतना विकसित करें की लोग आपको समझने के लिए अपने खोपड़ी को विकसित करने की कोशिश करें" — यह कोई घमंड नहीं, बल्कि आत्मविकास की पराकाष्ठा है। 🌱 मानसिक विकास क्या है? मानसिक विकास का अर्थ सिर्फ किताबें पढ़ लेना, डिग्रियाँ अर्जित कर लेना या तर्कशील बातें करना नहीं है। यह तो अपने अनुभवों से सीखना, अपने भीतर की सीमाओं को चुनौती देना, और हर परिस्थिति में समभाव बनाए रखने की कला है। 🧠 आप क्यों विकसित हों? क्योंकि दुनिया को बदलने का सबसे असरदार तरीका खुद को बदलना है। जब आप स्वयं को ऊँचाई पर ले जाते हैं — सोच में, व्यवहार में, दृष्टिकोण में — तब आपकी उपस्थिति ही एक संवाद बन जाती है। फिर आपको लोगों को समझाने की जरूरत नहीं पड़ती, लोग खुद आपको समझने की कोशिश करने लगते हैं। 🔥 जब आप अलग दिखते हैं… जब आपकी सोच भ...

"जब सेवा बन जाए संस्कार: 'श्रेष्ठ पुत्र रत्न अवार्ड' की ऐतिहासिक पहल"

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आज का समाज उन लोगों को सम्मानित करता है जो शिक्षा, चिकित्सा, सेना, खेल, प्रशासन जैसे विभिन्न क्षेत्रों में उत्कृष्ट योगदान देते हैं। यह प्रशंसनीय है। परंतु एक मौन, त्यागमयी और गहरी मानवीय सेवा – बुजुर्गों की सेवा – अभी भी उस सम्मान से वंचित है जिसकी वह हकदार है। माता-पिता, दादा-दादी या अन्य वृद्धजनों की सेवा करने वाले लोग, जो निःस्वार्थ भाव से अपने जीवन का एक महत्वपूर्ण भाग बुजुर्गों की सेवा में समर्पित कर देते हैं, क्या उन्हें हम सिर्फ "कर्तव्य" कहकर अनदेखा कर सकते हैं? क्या उन्हें भी किसी राष्ट्रीय स्तर के सम्मान का अधिकारी नहीं माना जाना चाहिए? एक अनूठी पहल: वृद्ध सेवा आश्रम द्वारा "श्रेष्ठ पुत्र रत्न अवार्ड" भारत में पहली बार, इस भावनात्मक और सामाजिक रूप से अत्यंत महत्वपूर्ण विषय को राष्ट्रीय विमर्श में लाने का कार्य कर रही है "वृद्ध सेवा आश्रम" – झारखंड स्थित एक समर्पित संस्था, जो पिछले दो दशकों से बुजुर्गों के मान-सम्मान और अधिकारों की रक्षा में लगी है। 👉 13 जुलाई 2025 को रांची, झारखंड में "श्रेष्ठ पुत्र रत्न अवार्ड" का आयोजन क...

"माँ अब भी मुस्कराती है…"

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उसकी झुकी हुई कमर और कांपते हाथों से अब भी एक दुआ निकलती है – अपने बच्चों की सलामती की। उसके चेहरे की झुर्रियाँ कोई साधारण रेखाएं नहीं, वो जीवन की संघर्षगाथा हैं। साड़ी के पल्लू में छिपी शर्म नहीं, बल्कि वर्षों की चुप्पी है, जो कहती है — "बेटा, तुम तो बड़े हो गए, पर क्या इंसान भी बने?" यह तस्वीर एक बुजुर्ग माँ की नहीं, पूरे समाज की संवेदनहीनता की तस्वीर है। जिसने पाल-पोसकर बच्चों को इस काबिल बनाया कि वो उड़ सकें, पर जब वो चलने लायक नहीं रही, तो बेटा उड़ गया… और माँ अकेली रह गई। 🍂 बेटों ने कहा: "अब कहाँ संभाल पाएंगे, काम बहुत है..." 🌪️ बेटियों ने सोचा: "ससुराल की जिम्मेदारियाँ हैं, क्या करें..." पर माँ ने कुछ नहीं कहा। वो चुप रही। सिर्फ मुस्कराई — उसी झुकी कमर, उसी कांपते हाथ और फटे आँचल में भी दुआओं की दौलत लिए। ❝ माँ कोई बोझ नहीं होती... ❞ वो तो वो दीवार है, जो तूफानों में भी दरकती नहीं, वो तो वो छाँव है, जो धूप में भी सुकून देती है। आज अगर वह किसी वृद्धाश्रम के कोने में बैठकर अपने ही बच्चों की तस्वीरों को ताक रही है, तो दोष सिर्फ उस माँ का ...

धर्म या कर्म: कौन अधिक महत्वपूर्ण?

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मनुष्य के जीवन में धर्म और कर्म दोनों ही अत्यंत आवश्यक हैं, पर जब प्रश्न आता है – धर्म बड़ा या कर्म, तो उत्तर सीधा नहीं, गहराई से विचार करने योग्य है। धर्म क्या है? धर्म का अर्थ अक्सर संप्रदाय, पूजा-पद्धति या रीति-रिवाजों से जोड़ दिया जाता है, जबकि मूलतः धर्म का अर्थ है – कर्तव्य, मर्यादा, और सच्चाई के मार्ग पर चलना। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा भी है – “धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे”, अर्थात जब धर्म की हानि होती है और अधर्म बढ़ता है, तब मैं स्वयं प्रकट होता हूँ। कर्म क्या है? कर्म का अर्थ है कृया, कार्य या प्रयास। जो हम हर दिन करते हैं – वह कर्म है। हमारी सोच, हमारी नीयत और हमारे कार्य – सब कुछ हमारे कर्म के दायरे में आता है। गीता में ही श्रीकृष्ण ने कहा – “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन”, यानी मनुष्य को केवल अपने कर्म करने का अधिकार है, फल की चिंता नहीं करनी चाहिए। धर्म बिना कर्म अधूरा है, और कर्म बिना धर्म दिशाहीन यदि कोई केवल धर्म का पालन करता है पर अपने कर्मों में ईमानदार नहीं है, तो उसका धर्म केवल दिखावा है। और यदि कोई कर्मशील है, पर उसके कर्मों में नैत...

🌿 बढ़ती संवेदनहीनता: आधुनिक समाज की चुप्पी क्यों?

एक समय था जब किसी के घर दुःख आता था, तो पूरा मोहल्ला दुःखी हो जाता था। किसी को चोट लगती थी, तो हर हाथ मलहम बनकर आगे बढ़ता था। लेकिन आज? आज हम दर्द को कैमरे में कैद करते हैं, संवेदना को स्टेटस में डालते हैं, और फिर आगे बढ़ जाते हैं। आज के समय की सबसे बड़ी सामाजिक त्रासदी यही है – संवेदनहीनता की महामारी। 📌 घटनाएं जो चौंकाती नहीं, बल्कि आदत बन गई हैं... रेलवे स्टेशन पर एक वृद्ध महिला भूख से बेहोश पड़ी रही, लोग उसके बगल से गुजरते रहे… स्कूल से लौटता बच्चा एक्सीडेंट में गिर पड़ा, भीड़ तमाशबीन बनी रही… एक महिला घरेलू हिंसा का शिकार होती रही, पड़ोसी दीवारों से कान सटाए रहे, लेकिन आवाज नहीं उठी… क्या हमारा समाज अब केवल “देखता” है, “महसूस” नहीं करता? 🔍 संवेदनहीनता के पीछे छिपे कारण 1. डिजिटल युग की दीवारें: हम ऑनलाइन जुड़ते जा रहे हैं, लेकिन दिलों से कटते जा रहे हैं। स्मार्टफोन में तो दुनिया है, पर पड़ोसी का हाल तक नहीं पता। 2. खुद की सुरक्षा का डर: लोग डरते हैं—अगर किसी की मदद की, तो कहीं उलझ न जाएं, पुलिस केस न हो जाए। 3. जीवन की आपाधापी: हर कोई भाग रहा है। समय नहीं, धैर्य नहीं, न ही अपने ब...

"संघर्ष की गोद में शिक्षा – आशा की एक किरण

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"वृद्ध सेवा आश्रम, रांची 🌿 की ओर से... एक झोपड़ी, टूटी फूटी जमीन, और मां की गोद में पलता भविष्य – यह दृश्य हमें यह सोचने पर विवश करता है कि संसाधनों की कमी के बावजूद यदि इच्छा हो, तो शिक्षा की लौ हर अंधेरे को चीर सकती है। आज जब हम वृद्ध सेवा आश्रम, रांची 🌿 में बुजुर्गों की सेवा करते हैं, तो यह दृश्य हमें हमारे मिशन की जड़ से जोड़ता है – "सम्मान, सेवा और संवेदना"। जिस मां ने अपने बेटे को गोद में बैठाकर, खुद अनपढ़ होते हुए भी अक्षर ज्ञान देने की कोशिश की, वही मां एक दिन वृद्धावस्था में समाज की उपेक्षा झेले, यह अन्याय है। हम क्या कह रहे हैं? 👉 शिक्षा सिर्फ स्कूलों में नहीं, संस्कारों से भी मिलती है। 👉 जो मां-बाप हमें चलना, बोलना, पढ़ना सिखाते हैं – क्या हम उन्हें बुजुर्ग होने पर भुला देते हैं? 👉 अगर इस चित्र में दिख रही मां एक दिन अकेली रह जाए, तो क्या हम जैसे समाज का कोई दायित्व नहीं बनता? हमारा आह्वान – एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक सम्मान की परंपरा वृद्ध सेवा आश्रम, रांची 🌿 सिर्फ एक संस्था नहीं, एक आंदोलन है – जिसका उद्देश्य है कि हर बुजुर्ग को सम्मान और स...